२६८ अमर अभिलापा 3 "तू मेरी माँ है? तभी न दिन-रात मुझे कोसा करती है। मैं हाद-मांस की थोड़ी हूँ, लोहे-पत्थर की हूँ। तुम लोग ख़ुशी से नीग्रो, गुलबरें उहायो, और मैं मर जाऊँ ! क्यों ? डायन तू है, कि मैं ?" बूढ़ी ने क्षणेक पिपम दृष्टि से पुत्री को ताकते हुए कहा- "हम तेरी-ही तरह सुनाम कमाते फिरते हैं न-यारों के पास ?" "किसने रोक रखा है? फमामो न? तुम दस-दस चार लगायो।" अच गृहिणी क्रोध को न रोक सकी। उसने तिलमिनार एफ धनली लकदी उठा ली, और भगवती को मारने धनी। भगवती ने लपफकर लकड़ी छीनकर फेंक दी, और एक ऐसा धक्का दिया, कि बुढ़िया धरती में गिर पड़ी। उसकी नाक से यहने लगा। गृहिणी धीरे-धीरे कराहती हुई उठ बैठी। क्रोध, अपमान और दुःख से उसे आत्म-विस्मृति होगई थी। उसने भगवती को देखा, फि वह सिंहनी की तरह उसे घूर रही है । उसे इस तरह अपनी और घरते देखकर उसने कहा-"बिनाल ! चल दूर हो पहाँ से" "क्यों ? मैं यही तेरी छाती पर मूंग दलूंगी।" "जो भय कमी उघर नाती देखी, वो नीम खींच लूंगी।" "नाउँगी-जर जाऊँगी । तुम से बने, तो रोक लेना।" गृहिणी ने दाँत फटकटाकर कहा-"मुझे खबर नहीं थी, कि
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