पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७२ अमर अभिलापा - " पटकने लगी। हरनारायण किंकर्तव्य-विमूद की तरह खड़ा था। अब उसने लपकपर माता का सिर गोद में रख लिया, और चारपाई पर बैठ गया। गृहिणी पदी-पड़ी कराहने लगी। कुछ सहरकर हरनारायण ने माता से नन्नवा से पूछा-"माँ ! हुआ क्या है? कुछ दात तो कहो । कुछ तफलीफ़ है क्या ? वैद्यजी को बुलावे गृहिली ने घर की चार मुँह उनपर पुत्र के विपरए और करणारी मुख को देखा। अबकी बार टसे कुछ ज्ञान हो पाया। उसने कलपने-फशपते कहा- "अरे वेटा, वह मेरी लाइली ! मेरी फोन की बेटी..... इससे धागे न बोला गया। वह फिर उसी तरह सिर धुनने लगी, और इंफनी बढ़ गई । उस समय भगवती को छोडकर वहाँ नद उपस्थित थे । वृद्धा के मुख से ये शब्द निकलते ही सब डर गये । कहीं उस प्रभागिनी ने कुछ खा-पी तो नहीं लिया जयनारायण ने हड़यहाकर कहा- "भगवती ! उसे क्या हुया? उसने उप किया है क्या ?" इतना कहते-कहने जयनारायण भगवती की कोनी की ओर दौड़े। भगवती को वहाँ न देखकर सब घबरा गये । नारायणी भी पिठा के पीछे-पीछे रोती और 'जीजी-जीजी' चिन्ताती हुई दोरी। भावती द्वार बन्द किये..येटी यो। जयनारायण ने उसे पुकारा । भगवती कोष से भभकी हुई थी। उसने समना, माता ने इन्हें सब बात कहकर भेजा है । वह चुपचाप बैठी रही। बप- -