उपन्यास २७३ नारायण थय एफदम घबराकर बोले-"भगवती! घरी भाग- वती! नू क्या कर रही है ?" भगवती तब भी चुप रही। जयनारायण के पदय में और ही शंफा समा रही थी। वे किवाद तोदने की फिक्र न लगे। नारायणी खड़ी रोती रही। भगवती ने देवा-पय सैर नहीं है । उसने श्राफर फिवाद खोल दिये, और तनकर पिता के सामने खदी होगई । जय- नारापर ने उसे भला-बना देसकर चार सांस ली। पर थमी उनकी धयराहट न गई थी। इसी से भगवती पार न उन्होंने न देस, उसी भाव में कहा- "भगवर्ता, तू किनार यन्द फिरे यया कर रही थी? देख तो, तेरी मां को क्या हुआ है ?" नारायणी दौदफर यहन से लिपट गई। भगवती अभी पिता का भाव न समझी थी। उसने नारा- पणी को एक और ठनते-लने कहा-मां को क्या हुया है ? निभय जानो, वह मरनेवाली नहीं है।" जयनारायण पुत्री के मुख से ऐसी कोर यात सुनकर दंग रह गये। उन्होंने घय जो ध्यान से उपफा मुख देखा, तो उस पर सदा का दीन और विनय-भाव नहीं था। उसकी बातों में भयानफ क्रोध की ज्यादा जल रही थी, और होठ घृणा से सिकुद रहे थे। उन्होंने तनिक रुट होकर कहा-"तुझे उसकी ज़िन्दगी रकी सटकती है। उसने तुझे जन्म तो न दिया था न?"
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२७९
दिखावट