पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२८१

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उपन्यास "और मेरा सर्वनाश !" इतना कहते-करते लोश में भग- बती का मुंह लाल होगया। जयनारामण पुत्री के साहस और अविनीत माचरण से चकित होकर योले-"भगवती ! तुझे अपने बाप के सामने यह यात कहते लज्जा नहीं पाती ?" "नजा? नब्जा थप ई ही कहाँ ?-और मेरे मां-बाप ही कहाँ है? मेरे मां-बाप होते, तो क्या मेरी यह गति यनती? कुत्तों, जानवरों, मिसर्मगों से भी यधिक दुःख, अपमान और भवहेलना में स्नान कर करके वर्षों से टुकड़े सा रही है, खून पो-पीपल जी रही है, यदनानी की स्याही से मुंह काला होरहा है, लोग मेरा नाम लेने में पूरा करते हैं, मुहागन मुंह नहीं देवती,-अपने बच्चों पर पराई तक नहीं पडने टवी, मले घरपी पेटियों को मेरी हया भी लग जाती है, तो उन्हें पाप लगता है। मां-बापों के सामने सन्तान की ऐसी दुर्दशा हो सकती है क्या ? मेरे मां-याप कहाँ है ? मैं तो गवसों के बीच पदगई है।" ना करते-कहते भगवती उन्मादिनी की तरह अपने कपड़े नोच-नोचकर फंकने लगी। उसके मुंह में फिर माग भर भाये, और आँखें भाग उगलने लगीं। लयनारायण दोनों हायों से घाँस दिवाकर फूट-फूटकर रोने बगे। फिर बोले-"सच है पेटी ! तुम राक्षसों के हो बीच में हो, हम तुम्हारे मां-बाप नहीं हैं।" कहकर जयनारायए चल दिये।