सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८० अमर अभिलापा तो जान किस-किस की वहन-मनीनी निकलें, जिनके सामने मेरी लड़की हजार दन अच्छी है।" शिवराम पाड़े एकदम सई पढ़ गये । उनकी बोलती बन्द हो गई। पर चौधरीजी ने बिरादरी के अपमान का प्रभाव वता- कर कहा-"अब घच्छी तरह लोचलो । समय पर नो काम हो नाता है, पीछे किसी तरह नहीं होता।" व तो वाल-चच्चों की दुर्दशा का नयाल करके जयनारायण रोने लगे। चन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा । भगवती को घर- से बाहर कर देने का निश्चय रहा। अव सलाह यह होने लगी, कि उसे भेजें कहाँ? लयनारायण ने कहा-"अच्छी बात है, मैं उसका पुनर्विवाह किये देवा हूँ।" चौधरी साहब बोले-"पुनर्विवाह कैसे करेंगे? यह भी तो अधन है। "जो अधर्म साबित करें, उन्हें बुलाइये-सावित करूँगा। मैंने धन-शास्त्रों के प्रमाण संत्रह किये है, और काशी में बड़े-बड़े पण्डितों की व्यवस्था भी ली है।" चौधरीली बोले-"वह सब व्यर्थ है। तो चाल बिरादरी में नहीं है, उसे करना ठीक नहीं है। बाकी अापकी समन है। नीति की यह शिना है, मनुष्य को सोच-समन्कर काम करना चाहिये, नहीं तो पीछे पच्वाना पड़ता है। आगे आपकी समझ है।" इतना कह, चौधरीली चलने को लकड़ी उगने लगे। 1