उपन्यास २७९ - नारायण को जाति-पतित किया जाय या नहीं, यही विषय उप- स्थित था। अनेक वादविवाद के पश्चात् यही निश्चय हुया, कि या नो जयनागयल लटकी को घर में निकाल दे, और गमा. स्नान पर पांचसौ ग्रामों से भोजन दे अथवा जाति-वहिष्कृत सममा लाये। शियरान पदि शार हरमनन गरी यही समा. चार लेकर उनके पास नाय । जयनारायण पहले तो चुपचाप मिर लटपाय हे, पिर एकाएक पद गर्न होकर बोले- "श्राप लोग पक्षों से रहा, कि मुमै जाति-विरादरी मे कोई वास्ता नहीं है, अपनी सन्तान को कौन घर से निकाल देता है ?" पौधरीजी ने मनन्नने हुये कहा-"ये येरमनी की वाने मत करो। तुन बाल-बच्चेदार भादी हो, बिरादरी बिना वैसे रहनते हो?" लयनारायण ने उन्तापर कदा-"लय विरादरी मेरे गाल- बच्चों का गला घोटने को तैयार है, तो देवी मिरादरी पर मैं यूफना भी नहीं चाहता।" शिवराम पाड़े बोले-"इन छोटे यचों का क्या करोगे? एक के पीछे सय को क्यों भारत में ढालते हो? और पिर विरा- दरी नागहानी का दण्ड दे रही हो. यह बात भी नहीं है। लड़की ने काम कुछ फम बुरा किया है?" नयनारायण ने लाल-लाल आँखों से उनकी भोर ताककर कहा-"मेरी बढकी ने जैसा किया, उसका फल भोग लिया है। जिसका पर्दा बना रहे, वही भया । ममी मैं खोज करने निकलूँ,
पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२८५
दिखावट