, का २८६ अमर अमिलापा "तुमने और तुम्हारी जाति ने !" कुछ ठहरकर हरनारायण ने कहा-"तुमने अपनी नाति भी छोड़ दी है?" "उस बेरहम, नाचीज, कमीनो जाति को छोड़ यिना कोई कैसे जिन्दा रह सकता है ?" हरनारायण ने देखा-पद-पद पर चमेली की उत्तेजना यदती नारदी है, और स्त्री-सुजम क्षता, नम्रता और शीलता मानों उसमें लेश भी नहीं है। हरनारायण ने ठण्डी साँस लेकर दुःख-भरे शब्दों में कहा- "तुम्हारे सम्बन्ध में सारे गाँव में यही विश्वास है, कि तुम धर्म- पूर्वफ फाशी-पास कर रही हो, और हर महीने तुम्हारे पिता तुम्हारे लिये खर्च नी भेनते हैं। पर यह तो नुझे विश्वास भी नहीं था, कि तुम इस प्रकार पापों का टोफरा बटोर रही हो, और यों इस धर्म-क्षेत्र में दोनों लोक नष्ट कर रही हो। धमा- गिनी, तुमने अपने कुल-शील का कुछ भी ध्यान न किया ?" हरनारायण की इस बात से मानों उसके स्त्री हृदय पर प्रभाव पदा । हरनारायण ने देखा, कि भ्रष्टा वेश्या के आँखों में घाँसू भर पाये । उसने कहना शुरू किया-"मुझे साढ़े चार वर्ष यहाँ भाये होगये हैं। मैं न जन्म से ऐसी थी, न होने की आशा थी। तुम्हें तो मालुम ही है, मेरे बेईमान बाप ने उस मृगी के मरीज़ से १५००) रुपये लेकर मेरा व्याह कर दिया, और व्याह के बाद ही छः महीने में मैं विधवा होगई । उसके बाद घर में और ससु-
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