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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२९३

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उपन्यास २८७ राल में जैसे दुःख से तीन वर्ष काटे, उसे मैं ही जानती हूँ। अन्त में उन पानी कमीनों से यह भी न देखा गया, और जैसी-तैसी तुहमत लगाकर मुझे ददाम कर दिया । यिरादरीवालों की बात में प्राकर बाप ने मुझे यहाँ फेंक दिया, और पांच रुपये महीना मेजना शुरू किया। उन्होंने समझा था, यही उनका मेरे प्रति यथेष्ट कर्तव्य था । पर तुम्ही कहो, इतने बड़े नगर में इतने थोड़े खर्च में विना सहायक अकेली रह सकती थी ? तुम क्या समझते हो कि धर्म गली-गली मटकता फिर रहा है, नो हरकसो नाकस के गले मैंदना जायगा ? इन पापी, अधर्मी, काफिरों को अपनी बेटी को इस तरह मिट्टी में मिलाते कुछ भी शरन न आई? उन- का कलेजा-तनिक भी न लजा? अव मेरा बाप मुझे यहाँ छोड़ने थाया, तब हा-हाकार विलाप सुनकर उसका फलेना पिचला ? मैंने उस नामुराद के नापाक पैरों में पड़कर कहा-'मुझे यहाँ कहाँ इस इतने बड़े शहर में छोड़े जाता है ? तब जानते हो, उसने क्या जवाब दिया। उसने कहा था-'जय ने धर्म नष्ट किया, तव इन बातों को नहीं सोचा था । उस दोजनी कुत्ते ने अपनी मासूम बेटी को मुर्दे के हाय बेच डाला-उसका कोई धर्म नहीं विगहा । उन पानी पञ्चों ने वेगुनाह मुन्ने कसब कमाने यहाँ मिलवा दिया, उनका धर्म नहीं बिगड़ा। इस नाचीज़, 'घिनौने' मुर्दे धर्म पर तुम है लानत है ! मैं इस पर यूकती हूँ। भय नाकर उन धर्म-धुरियों से कह देना, दुम्हारी घेटी मुसलमान होगई है, और पेशा कमाती है।"