२९० अमर अमिलाषा ठहरकर उसने कहा-"तो तेरा क्या विचार है ?" "कुछ नहीं।" "तू यहाँ रहना चाहती है, पा नहीं " "तुम क्या मुझसे पूछकर-ही यहाँ रखने लाए हो?" "और, अप क्या विचार है?" "मेरी जो इच्छा होगी, वह करूंगी, तुम अपनी मनमानी करो । मुझे अब भी भगवान का सासरा है। आखिर इतने पापी है, इन्हें भी तो पिसी का आसरा है-ही।" हरनारायण विचार में पड़ गये । वे नेन नूंदकर अपनी स्थिति पर विचार करने लगे। धीरे-धीरे वे अपनी बहन की स्थिति और भविष्य को देखने लगे। वे ज्यों-ज्यों विचार-मम होते गये, त्यों-त्यों उनका गम्भीर चेहरा विपाद-मन्न होता गया। उन्हें एक-एक करके अपने बचपन के दिन याद थाने लगे। उनके नेत्रों में एक के बाद एक, वे बाल्यकाल के दृश्य श्रा-धाकर नाचने लगे। वह आम के बारा में कैरी तोड़ना, वह भाई-बहन की नैसर्गिक बान- लीला, मानों प्रत्यक्ष दीखने लगी । वह बालू का घर, गुड़ियों का खेल, नाराज़ी, मचलना, माता का प्यार, छोटी-छोटी खाने की वस्तुओं का बाँटना, मगहना-आदि वीस-बीस वर्ष के पुराने दिन प्रत्यक्ष दीखने लगे। उन्होंने नेत्र खोलकर देखा-वही उनकी दुलारी बहन नीची गदन किये, अपने उस वे-और-छोर के अन्ध- कारमय भविष्य को विचार रही है जो उसके निर्यन और असहाय तन मन पर आ-पड़ा है। उनके मुख से एक दीर्घ निःश्वास
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