पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२९५

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उपन्यास २८१ दन करो । कुछ तुम्हारा और मेरा ही यह नया नाग नहीं है, इस मोहल्ले में कई नुझ-सी तुम भी है। कहोगी, तो उनसे मुलाकात करा दूंगी। कभी उनकी सुनकर रोना, कभी अपनी सुनार रुलाना । पर वक्त ये-धक हमने फो सदा तैयार रहना।" हरनारायण का दम मानो घुटने लगा था। उसके मुंह से एक शब्द न निकला । ये उठ रादे हुये, चौर बोले--"भगवती ! चल, जल्दी चल !" घमेली के पदय में न जाने क्या-क्या भाव तत्पर हो रहे थे। जो स्त्री भय तक ऐसी तेजी से बोल रही थी, श्य यह एफ-दम रो पड़ी । वह कुछ कहना चाहती थी, पर पहन सफी। दोनों यागन्तुक नन्दी से याहर निकल आये। उनचासवाँ परिच्छेद भगवती चुपचाप और कुछ उपाय न देख, दोनों ने उस रात धर्मशाला में देरा किया। प्रभात होते-ही हरनारायण ने कहा-"भगवती, चल गंगा स्नान कर श्राव।" बैठी रही। हरनारायण ने पुनः वही प्रस्ताव किया । भगवती ने धीरे से कहा-"तुम गंगा में नहाकर पवित्र हो श्रायो, मेरा क्या गंगा-स्नान है-मुझे तुहारी गंगा-वंगा नहीं चाहिए।" हरनारायण चुपचाप मुँह लटकाकर बैठ गया। तब कुछ