उपन्यास २९९ भगनती ने अपनी पर्राई और गढ़े में फंसी हुई आँखों को युवक के मुंह पर गादकर कहा-"मतलव तुम नहीं सममे ? मैं काशी डूबने गई थी, पर फिर सोचा कि अभी और कुछ दिन जी ल, फिर भरना तो कहीं गया नहीं है-जीना क्या बार-बार मिलता है ? सो इस जीने के लालच से तुम्हारे पास भाई हूँ। क्योंकि अब सिवाय तुम्हारे और कहीं मेरा जीने का ठिकाना नहीं है। तुमने कई बार कहा था, कि पुनर्विवाह करलें। चलो, मैं इसके लिये तैयार हूँ। पर ऐसी जगह चलो, जहाँ कोई न देख सके पंछी भी न देख सकें-बल, हम ही दोनों रहें।" इतना कहकर भगवती हॉफने लगी, और उसकी आँखों से टपाटप थाँस् टपकने लगे। पर हरगोविन्द ने उपर नहीं देखा। वह एकदम कानों पर हाथ घर गया । उसने जरा धमकती धावाज से कहा--"ना, ना, यह कभी नहीं होने का ! यहुत होचुका । तुम्हारे पीछे बहुतेरी बदनामी और वे-इज्जती कमा ली। बस, अब तुम मुझे वन्यो, और तुम इस तरह वक्त--वन्त कभी मेरे घर मत पाया करो। मुझे इस इल्लत की मालूम होती, तो कभी ऐसा काम नहीं करता । जो होगया है, वही यहुत है।" पाठक ! इस चोट को समझे ? कितने दिन की भूखी-प्यासी लड़की, भारम-हत्या करने पर उतारू, असहाय अवस्था में जिस कच्चे धागे के सहारे पास लगाये इतनी दूर से दौड़ी आई थी, वह इस तरह दशा देगया; वह एकदम टूट गया! . ,
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