३०० अमर अभिलापा भगवती की आँखों में अँधेरा छा गया। क्षण-भर के लिये उसके शरीर के खून की गति रुक गई, सिर चकराने लगा। उस- ने भरीए और टूटे स्वर में कहा-"क्या कहा?" हरगोविन्द ने कुछ मिमककर और कुछ उकताहट से कहा- "बस, कहना-सुनना यही है, अव तुम यहाँ से चली बायो। कोई “श्राफर देख लेगा।" भगवती ने ढ़ता से कहा--"देख लेगा, तो क्या है ? भावे देख ले।" हरगोविन्द कुछ क्रोध से बोजा-"हाँ, तुम्हारे लिये तो कुछ नहीं है, पर मुझे वो लज्जित होना पड़ेगा।" भगवती के शरीर में सनसनी दौड़ गयी। उसकी गर्मी बढ़ने लगी, और उसने कुछ उत्तेजित होकर कहा-"तुम्हें ?" हरगोविन्द कुछ तेज़ होकर बोला-"हाँ, मुझे।" अव भगवती का चेहरा कुछ भयंकर होने लगा। उसने जरा ऊँचे स्वर से कहा-"तुम्हें इतनी लज्जा है ? पर नानते हो, मेरी लज्जा कहाँ जा डूबी है ?" हरगोविन्द ने झिडकार कहा-"रात के वक्त यह बकवाद विल्कुल वाहियात है। निफजो घर से बाहर ! मैं तुम्हारी बात किसी तरह नहीं मान सकता।" इतना कह, वह द्वार की तरफ बढ़ा । भगवती ने होठ काट- फर कहा-"मैं निकलूं, और तू? तू यहीं रहेगा?" हरगोविन्द ने जामे से बाहर होकर कहा- "तू-तू क्या बकती है, घुल ! निकल इबर को।"
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