उपन्यास ३०५ GA. - यदि तुम्हारी वान सत्य हुई, तो अपराधी दरड पावेंगे । कानून ने तुम्हें स्वतन्त्र कर दिया ।" "परन्तु समान ने तो नहीं। कहीं भी जाना निरापद नहीं समझती । ज्यादा से ज्यादा निरापद स्थान मेरे लिये यही अदा- लस का कमरा है। मैं थन्ततः यहीं रहूंगी।" "ऐसा तो नहीं हो सकता।" "तम क्या हो सकता है ?" मैतिष्ट्रटे विचार में पड़ गये। उन्होंने कहा- मैं अपनी तरफ से तुम्हारे पिता को तार दे सकता हूँ। तुम चाहो, तो तक मेरी न्त्री को संरक्षकता में रह सकती हो।" "यह मुझे स्वीकार है। तय मैतिष्ट्रट साहब ने उसे बैंगले पर भिजवा दिया । इसके साथ ही उन्होंने उसके पिता को तार भी दे दिया । शाम को मैजिष्ट्र टे साहब इतलास से लौटे । उन्हें तार का जवाब मिल चुका था, और उसे पढ़कर वे दुःखित क्या चिन्तित होगये थे । वे नहीं समझ सकते थे, कि मालती-जैसी साहसी लड़की को क्या नवाय दें और किस भौति उसका कोई प्रवन्ध करें। मालती ने नहा-धोकर कुछ खा लिया था । वह शान्त थी, पर बहुत क्वान्त थी। उसने मैलिट्रट साहब के घर भाते ही पहा-"क्या तार का तवाय पाया ?" "आया तो।" उन्होंने वार उसे दे दिया। उसमें लिखा २०
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