३०६ अमर अभिलाषा NORAIN MUU . था उसे हम घर नहीं रस्त्र सकते, जातीय मर्यादा बाधक है। खर्च भेजते हैं, अच्छा प्रवन्ध कर दें। मालती ने रोना चाहा, पर रोन सफी । श्यामा बाबू भी कुछ न बोल सके । मालती ने स्वयं कहा-"प्रद थापने क्या विचारा है ? "मैं तुम्हारी क्या मंदा फर फना है, कहो !" "मैं उत्तम रसोई वनाना जानती हूँ, आप मुझे यह जगह दे दीजिये । मैं सिर्फ भोजन और रक्षा चाहती हूँ। शीघ्र ही में अपने विषय में निश्चय कर लूंगी। तब श्राप पर भार न रहेगा।" स्यामा याबू की शांखों में आँसू भर थाये। उन्होंने कहा- "मालती, उन्हें नौकर की भाँति रखने की तो मेरी इच्छा नही है, हाँ, बहिन की भाँति जत तम रहो-यहाँ तुम्हें कोई मय नहीं। परन्तु भविष्य के विषय में तुम्हें बहुत-कुछ सोचना होगा।" मालती की आँखों से यार गार-मर गिरने लगे। उसने कहा-"श्राप पर मैं विश्वास करती हूँ। आपने इस दुखिया को बड़े बड़े समय में श्राश्रय दिया है, ईश्वर आपका मना फरेगा।" इतना कहकर मालती वहाँ से घर के भीतर चली गई। । . तिश्पनयाँ परिच्छेद रायबहादुर महाशय के प्रशस्त बैंगने पर वही चहल-पहल है। सैकडों शादमी दौड़-धूप परते फिर रहे हैं। रायबहादुर
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