पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३२

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३२ अमर अभिलापा में न गया था। फिर भी उसने कहा-"नहीं, भूखी वो नहीं हूँ।" परन्तु उसके वीण स्वर ने हृदय का भेद खोल दिया । युवती ने बड़े प्रेम और भाग्रह से उसे कुछ खाने को कहा, परन्तु उसने किसी तरह स्वीकार नहीं किया। युवती ने कहा-"मैंने भी बड़े कष्ट भोगे । मैं ७ वर्ष की आयु में विधवा होगई थी। तीन वर्ष बाद मा-बाप मर गये। भाई-भावन के घर दिन न कर सके। लाचार, भाग पाई । मोर ! कितने दिन भूखी-प्यासी रही! कितने दिन भीख मांगी ! कितनी वकलीम, कितनी मुसीवत ! वहन, तुम शायद अब वैसी ही मुसीबत उठा रही हो?" बालिका ने दयाई स्वर में कहा-"शायद वैसी नहीं। मैं वैसे तो चन्म-दुखिया हूँ, . पर विपत्ति का पहाद केवल : महीने से मेरे ऊपर टूटा है।" "मेरे पिता मुझे छः महीने की छोड़ भरे थे। माता ने मुझे देखकर जीवन के दिन काटे । मैं अभागिनी पूरी उम्र होने से प्रयम ही सुहागन बना दी गई, और उसके १५ दिन बाद ही विधवा । एक बार सुसराल गई । ३ दिन रही, और चली आई। उस बात को भाव ११ वर्ष होगये। अब वो कुछ याद ही नहीं। पाती। तब से माता की गोद में पलती रही। धीरे-धीरे हमारा सर्वस्व नष्ट होगया। कपड़े वर्तन भी पेट में गये। पर परमेश्वर को धन्यवाद है, कि भीख की नौबत नहीं पाई। हम दोनों मां-बेटी सिलाई करके पेट पालवी रही, पर ईश्वर ने भव की मार.