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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३३

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उपन्यास ३३ गहरी मारी। मेरी माता भी चल बसी। मैं अकेली ही अब दुनिया में हूँ, और जैसे-तैसे पेट का कुछ उपाय कर लेती हूँ।" इतना कहते-कहते उसकी आँखों से दो बूँद आँसू टपक पड़े। युवती ने अत्यन्त सहानुभूति से कहा-"पर वहन, इतना कष्ट क्यों पाती हो? तुम चाहो, तो मेरी तरह रह सकती हो-चेसज्जन, को मेरी परवरिश करते हैं, तुम्हारी भी खबर रखेंगे। वे बड़े धनी, बड़े सुन्दर, बड़े सज्जन और बड़े प्रेमी है।" वालिका शक्षित हुई । उसने भयभीत और अकुलाई दृष्टि से युवती को देखकर कहा-"वे क्या मुझे सिलाई का काम दे सकेंगे?" युवती ने कुटिल-क्षेप कर, तेज़ स्वर में कहा-"सिलाई में आँखें फोदोगी?" बालिका ने लाचारी के स्वर में कहा-"तब, और तो कोई काम मुझसे पाता ही नहीं युवती क्षण भर को विचलित हुई। उसके मन में जो कुछ था-वह किसी तरह नहीं कह सकी । उसने उसके कन्धे पर हाय धरफर कहा-"तुम बड़ी भोली हो, परन्तु दुनिया में इतनी भोली, और इतनी भली यनकर काम नहीं चलता। मैं तुम्हारे ऊपर तरस खाती हूँ। तुम्हारा दुःख मुमसे देखा नहीं जाता, पर तुम सचमुच क्या मेरा मतलब नहीं समझती ?" "तुम कौन-से मतलव की यात कहती हो?" "मेरे इस गठ और आराम को देखकर, क्या तुम्हें इस तरह रहने की इच्छा नहीं होती?"