३१८ अमर अमिलाप इल पीकर पा लिया, तो ऐसे छोटे-मोटे विप क्या कर सकते है ? नयनारायण के पास जो सहानुभूति के लिये पाता, उसे यही कहते-"अच्छा हुमा, भाग्यवान् चली गई । श्रय मेरी भी मिही ठिकाने लगे, तो अच्छा है।" इतना तो हुआ, पर नारायणी का विवाह रुका नहीं। क्रियाकर्म समाप्त होते ही विवाह की तैयारी होने लगी। तैयारी सो होने लगी, पर उसमें कुछ धूम धाम नहीं थीं। वर सुन्दर, सुशिक्षित रईस वर का था । वर-पक्ष के लोग कुल सम्मान, जाति में सब से बढ़कर थे । चे पाहते, तो उन्हें एक-से-एक बढ़का लडकी मिल जाती। पर नयनारायण की मुसीवत ने उनकी बहुत सहानुभूति सम्पादन करणी थी। रामचन्द्र के निरन्तर प्रयत्न करने पर वे प्रतिज्ञा कर चुके थे, जब तक नारायणी मिलेगी, अन्यत्र व्याह न करेंगे। इतना होने पर भी धूम-धाम नहीं थी। पाठक ! धूम-धाम क्या बनावट से हो सकती है? जब दिल चुटीला हो, चोट ताजी हो, तो धूम-धाम कहाँ हो सकती है? निदान, उसी ठपढे प्रबन्ध में, अत्यन्त सादगी के साथ टस प्रसिद्ध रईस की बारात नियत तिथि पर नयनारायण के द्वार पर भापहुँची । बरात में वर, उसके पिता, भाई, सम्बन्धी, और दो परित लोग थे । इतनी छोटी, और बे-धूम-धाम की बरात होने पर भी गाँव में यहाँ तक कि भाल-पास के गाँवों तक मॅलोग दिल खोलकर मनमानी कह रहे थे । पुगने खुरोट, गालियों पर गालियाँ जा रहे थे । कलियुग की तो खैर नहीं थी। रियाँ ठोडी पर
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