पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३३८

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३३० अमर अमिलापा "मैंने उन्हें शपथ दिला दी थी।" "तुमने वड़ा दुःख भोगा।" "दुःख-सुख तो मन के विकार हैं। मैंने सुख भी भोगा, मौर दुःख भी।" "पर तुम्हारा दुःख वो अब भी वैसा ही है । कुमुद, क्या इसका अन्त न होगा?" "अब मुझे दुःख क्या है ?" "ओह, तुम संसार के सभी भोगों से दूर हो !" "भोगों की इच्छा रहने पर उनके न मिलने से दुःख होता है, मेरी उनसे तृप्ति होगई है।" "यह तृप्ति कैसी हुई ?" "अन्तरात्मा की सूचम भावना से।" "मैं तो उसका मतलब नहीं समझा ।" "सव के समझने की सव वाते नहीं । मेरा बच्चा नव सोता है, तब मैं निश्चिन्त काम करती रहती हूँ । यदि तुम्हारी रकम बैंक में जमा है, वो तुम बे-फिक्र हो।" "इस उदाहरण से अभिप्राय ?" "यही, कि तुम कहते हो कि स्वामी के विना स्त्री सब दुखों को सहती है। मैं स्वामी को सदैव पास पाती हूँ।" "सिर्फ कल्पना से " "कल्पना को इतना तुच्छ क्यों समझते हो ? कल्पना ही से भाई-बहन, पति-पत्नी का रिश्ता शेता है।"