उपन्यास ३९ "तू अकेली है ?" "तेरा नाम क्या है ?" "सुशीला।" "सुगौला" कहकर राजा साहब से। कुछ मागे यदकर उन्होंने उसकी ठोदी पकडकर, ऊपर उठाकर कहा-"सचमुच सुशीला है । यह कपड़ा तेने सिया है ?" "जी" इतना कहकर बालिका पीछे हट गई। उसने अपने फटे और भोले बस को यथासम्भव सम्भाला । फिर उसने उठकर कहा-"हजूर, मुझे यही देर हो रही है ।" राजा साहव ने यतृप्त नेत्रों से उसे घूरकर कहा-"शाम को चार बजे दिल के रुपये लेलाना, अभी तुमको इनाम मिलेगा।" इसके बाद राजा साहब ने नौकर को बुलाकर पांच रुपये लड़की को इनाम देने की थाना दी। परन्तु लड़की ने इनाम लेने से साफ इन्कार फरके कहा- "अगर सरकार अभी रुपये देदें, तो मुझे मेरी मजदूरी मिल जाती। मैं यहुत गरीब हूँ, मुझे पैसों की बड़ी जरूरत है।" राजा साहब हँसकर बोले-~-"तुम इनाम क्यों नहीं लेती ?" "माँ को आशा थी कि सिवा मजदूरी के और किसी से कुछ लेने में कुल-मर्यादा जाती है।" राजा साहय चुप हुए । वे कुछ देर तक घूर घूरकर लड़की को देखते रहे । उस मूर्तिमान करुणा को देखकर भी उनके मन में करपा के स्थान पर विनोद का माव प्रथल था। जिन्होंने काट -
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