अमर अभिलापा फभी देखा नहीं। तो कभी दरिद्रता से मिले नहीं, जिनके पदयों में दया के स्थान पर लालमा, प्रेम के स्थान पर वासना, और सहानुभूति के स्थान पर स्वार्थ भरा हुआ है, ग़गयों पर प्यों दया फरें? उन्होंने कहा-"रुपये शाम को पाकर ले. जाना।" बालिफा प्रय चली, और मालिफिन के पास सन्देशा लेकर पहुंची। पर यहाँ भी उसे वही सवाय मिला, धौर यह सूये हृदय से फिर अपने घर लौटने लगी। पर जाय फहीं ? यिना किराया दिये वहाँ जाना सम्भव नहीं। पालिका न कुछ सोच सकती थी, न फर सफती थी। यह उस समय से भी न सस्ती थी। यह निर्जीय फपुतली की तरह अपने घर न जाकर, फिली और ही सरन जारही थी। यह तो था, पर यही सब कुछ न था। उसके पीछे एक और विपत्ति थी, जिसका उसे जरा भी ज्ञान न था । एक मनुष्य राजा साहय की कोठी से पीछे लग रहा था-ज्योंही यालिफा शून्य जगह पर पहुँची, उसने आगे बढ़कर कहा-"कहाँ जारही है ?" चालिका सावधान हुई । उसने ध्यान से देखा। एफ नया भय उस पर सवार हुआ । उसने घवराई घष्टि से इधर-उधर देखा, और सूखते करठ से फहा-"मेरा मार्ग फ्यों रोकते हो?" मनुष्य ने निलंज्जता से कहा-"यह रूप-सुधा लेकर कहाँ भटक रही है, कोई लूट ले, तो?" बालिका पूरा मर्म न समझी, पर मनुष्य का श्राशय समझ
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