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४२ अमर श्रमिलापा भी घुसा । कोठरी में जाकर देखा-एक मिट्टी का घड़ा, टूटी घटाई और एक असंख्य पैवन्द-लगी धोती को छोड़कर कुछ न या। तमाम घर पर दृष्टि दालफर युवक ने पालिका पर घष्टि डाली। दृष्टि क्षण-भर दृष्टि से लदी और धरती में धंस गई। युवक ने सब-कुछ समझ लिया, और कहा-"क्या यही तुम्हारा घर है?" बालिका ने नोची नज़र से कहा-"ती।" "तुम्हारा और कोई है?" "नहीं।" "अकेली ही हो?" "जी" "गुजर कैसे करती हो?" "कुछ सिलाई का काम मिल जाता है।" "बहुत ठीक; क्या तुम कमीजें सी सफती हो?" "नीहाँ।" "बाज-ही दे सकती हो?" "जोहाँ।" "सिनाई क्या लोगी?" युवक मुस्कराहट न रोक सका, पर बालिका लाज से गढ़ गई। क्यों?--यह क्या जाने प्राणियों के हृदय के भीतर- गहरे पदों में पता नहीं, क्या-क्या होता रहता है। विदा पर