यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
प्रकाशक के शब्द 'अमर अभिलापा' शास्त्रीजी की बहुत पुरानी चीज़ है। इसे उन्होंने उस समय लिखा था, जब समाज की कुरीतियाँ उनके व्यक्तित्व से टकर खा रही थी, जब उनकी नसों में यौवन का उच्छशल रक्त चार काट रहा था, जब उनका दुनियादारी का अनुभव नया या, और दुनियाँ के लोगों की ऐसी विमीपिकामयी मूर्तियाँ उनके समझ नहीं पाई थी, जिनका अनुभव वे निकट-भूत में करते रहे हैं। इसीलिये यह चीज़ अधिक सुन्दर, अधिक स्वाभाविक और अधिक सुरुशिवर्द्धक बन गई; इसीलिये इसका वर्णन अधिक प्रभावशाली है, इसीलिये इसकी व्यञ्जना अधिक वेधक है। और इसीलिये हिन्दी के पाठक समुदाय ने इस पुस्तक का अप्रत्याशित भादर किया है। यह पुस्तक माचन्द 'चित्रपट' में छपी है। इसके छपते- ही-उपठे 'चित्रपट' के सैकड़ों पाठकों ने तकाजे-पर-काजे