अमर अमिनाया . यह धीरे-धीरे अपने होटल के कमरे में श्राफर यफित मात्र से पढ़ गया, और उसने भीतर मेद्वार बन्द कर लिया। वह अतिशय गम्भीरता से विचार में हम रहा था, और टमके विचार फा विषय थी, बद्दी अनाय असाहाय यालिफा। ग्राह! कसी सुन्दर, कैसी प्रिय, फैली मपुर; परन्तु, इटनी दरिद ! न पाने फा ठिकाना, न गाने फा; न यन्न, न विहाना; न लगा, न सम्बन्धी ! अली यह कुनुम-पाली, त्या धन्ती फोटक पदा या पासनान से गिर पडी- फिर इतना सौरभ लेफर ? उसके पास विपत्ति को छोटकर कुछ नहीं है। यह मानो चयष्ट न या, अब और पामत यह, फि दुष्टों के यह प्रायद अत्याचार! युक्फ बहुत दुग्गी हुघा, पर यह न्ययं मोचने लगा- दुःखिनी बाला का में कौन हूँ ? क्यों इतना मुम्ब मेरे मन में उसके लिये उम्पन्न होगया है, और क्यों में उसके लिये हुनना सोच रहा हूँ ? क्या मुझे यह उचित है ? इसे मैने भारताची से बचाया, उसे घर तक पहुंचाया-यह तो ठीक हुथा, पर कपड़ा सिलवाना, फिर लाने-बाने का सिलसिला कायम करना, यह भी प्या उचित हुया? क्या मुझे माफाल को पिर लाना पड़ेगा। युयक रकर टहलने लगा। उसका मन अधीर होरहा था। वह सोचता-जाने दो, अब कहीं जाने माने का काम नहीं है, वह कपड़े की कमीज़ बनाफर येच गायगी, कुछ दिन गुजर बायेंगे। फिर न होगा, कुछ सर्च-पानी भेजता रहूंगा । परन्नु पाह! युवक
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