पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/५४

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अमर अभिलाषा ठीक कठिन समय पर उसका उद्धार होना-"आह, यदि वह ............।" युवती मानों कोई बहुत-ही भयङ्कर बात सोचने लगी। उसने दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया। अब फिर उसका रुतून उमंद आया। हठात् उसके मुंह से निकल गया-"यह सय भाग्य का दोष है । भाग्य की रेख भी कितनी टेढ़ी, कितनी दुरूह और कितनी दुःसाध्य है !" हे परमेश्वर ! मुझ दुखिया को जो दुःख था, वही बहुत था, अव यह नई विपत्ति कैसे सही जायगी" वह भूखी-प्यासी वालिका अव सव-कुछ भूलकर उसी युवक की स्मृति को वार-बार हृदय से निकालने की चेष्टा कर रही थी। मानो वही युवक तीर की गाँस की भाँति उसके कलेजे में घुस गया हो । कभी वह गम्भीर सोच में डूब जावी, कभी वह रोने लगती। कभी वह वेचैनी से उठकर टहलने लगती । हात् उसे स्मरण पाया-वे पान सन्ध्या को थावेंगे। कमीज़ तैयार रहनी चाहिये। मगर नाप? नाप तो कुछ मालूम ही नहीं। पदि ठीक न बैठी, यदि बिगड़ गई-तब तो बड़ी आफत है। बेवारी वालिका सब-कुछ भूलकर अव कमीज़ की नाप-चोल की फ्रिम में पड़ गई । श्रव वह कमीज़ को सिये किस भांति, और न सिये, वो अपने उपकारी उस सुन्दर उदार युवक की नाराजी कैसे सहे? उसने कई बार कैंची ली, और रख दी। कपड़ा विगढ़ बाने का भी भय था.। परन्तु वादे के अनुसार उसे कमीज़ वो तैयार