उपन्यास ५५ रखनी ही चाहिये। उसने साहस करके कमीज़ काट डाली, और अपने खाने-पीने की 'जरा भी चिन्ता न कर, वह कमीज़ सीने लगी। धीरे-धीरे सन्ध्या काल भागया । वालिफा ने कमीज़ तैयार कर, तह करके रखदी, और धड़कते हृदय से युवक के थागमन की प्रतीक्षा करने लगी। जीने मे पद-ध्वनि हुई, और युवक सामने श्राखडा हुना। बालिका खड़ी होगई । वह न स्वागत कर सकी-न एक शब्द मुँह से निकाल सकी। युवक भी कुछ न बोल सका। कुछ समय तक दोनों चुपचाप खड़े रहे। युवक ने पूछा-"कमीज़ तैयार होगई न ?" "जी" "जरा देखू।" बालिका ने कमीज हाय में दे दी। युवक ने खोलकर देखा। एक मन्द हात्य की रेखा उसके होठों पर घूम गई । उलने कमीज़ की आस्तीनमाला नापकर देखा-बहुत भोली थी। उसने मट- पट कोट उतारकर कमीज़ पहन ली। कमीज़ उसके जिस्म में फँस गई । युवक ने हँसकर कहा- “बहुत ठीक, अब पाठ दिन उपवास करके शरीर को . छोटा करना पड़ेगा, तब यह कमीज़ ठीक बैठेगी।" बालिका लान से गढ़ गई । वह नीचा सिर किये खदी रही। थोड़ी देर बाद उसने कहा-"क्षमा कीजियेगा, मैं भापका
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