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उपन्यास इतने में मजदूर बहुत-सा थाटा, दाल, घी-सामान लेकर आगये । सुशीला ने पूछा-"यह क्या ?" "होता क्या-पेट-पूजा की बात।" "यह इतना कौन सायगा" "सुशीला खायगी।" "इतना उसके पेट में समायगा?" "जो बचेगा, उसे भाई खायगा, भाई को मीमसेन से कम न समभाना।" सुशीला हल पड़ी। युवक को चाँद मिल गया। मजदूरों को पैसे देखकर उसने विदा किया। उसके बाद वह उठ खड़ा हुआ । सुशीला ने कहा- "कल कमीज़ लेते भाना।" "अच्छी बात है। मगर सिलाई ?" सुशीला फिर हँस पड़ी। युवक एक बार भानन्द का प्रयास ले, जल्दी-जल्दी सीदी से उतर, होस्टल की ओर लपका। इस बीच में रात होगई थी। आठवाँ परिच्छेद -
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पाठक उल सत-वर्षीया हत-मागी बालिका को भूले न होंगे। उसका भाग्य फूटे डेढ़ वर्ष होगया है। इसके बीच में उसके पिता और भाई ने कई बार उसे घर ले जाने की चिट्ठी मेनी