पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६० अमर अभिलापा श्राकर युवक के पैर छुए । वह इस बार सिसक-सिलककर रो उठी, और फिर धरती में गिर गई। वह कुछ कहना चाहती थी-पर कह न सकी। युवक भी रो रहा था। यह रुदन कितना प्रिय, कितना मधुर और कितना पवित्र था-इसे कौन बचाये ? सुशीला ने कहा-"भाई, तुम्हें ईश्वर ने इस अभागिनी की रक्षा को भेज दिया यह क्या अच्छा हुआ? तुम किस बढ़े घर के लाल ही इस फुलच्छनी अभागिनी के लिये क्या-क्या आफत उठायोगे?" युवक की आँखों से थांसू जारी थे। उन्होंने उसका हाय पकड़कर पास बैग लिया। फिर कहा-"सुशीला! हमारी माता बढ़ी पवित्र दयाशीला थीं | क्या तुम कभी कल्पना कर सकती हो? वे कहती थीं-'हमारी एक विटिया भगवान् ने ले ली। उसके वे बढ़े गुन गाया करती थीं। वे सदा कहती-मेरी बेटी अब तक घर-बार की होगई होती। मुझे पान तुम मिल गई। क्या हमारी माता हम लोगों को न देखती होंगी। यह देखो-" उसने जेब से मावा का फोटो निकालकर सुशीलाको दिखा दिया। सुशीला उसे एकटक देखती रही। युवक ने फिर कहा- "सुशीला, यदि मावा जीवित होती-तो तुम्हें प्यार करतीं, पर अब तो वह काम मुझे करना पड़ेगा; मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। तुम्हें मेरे साथ घर चलना पड़ेगा। एक महीने बाद ही छुट्टियाँ हैं। तब तक तुम्हें और यहीं रहना पड़ेगा, पर कष्ट न पाना, मैं नित्य ही भाऊँगा।" .