६४ अमर अमिलापा कड़ी मार को विना प्रतिकार के धीर भाव से जन्म-भर सह सफने की शक्ति निस साढ़े साठ वर्ष की बालिका में है-उसे नगण्य समझकर हम क्या अपने हृदय के गौरव रक्षा कर रहे हैं? ऐसे ही दयालु हिन्दू-धर्म की उदारता, दया और प्रेम का मास्वादन प्रभागिनी पालिका नारायणी अपनी सुसराल में कर रही थी। हाड़-मांस के शरीर से और कहाँ तक सहा जाता? अन्ततः यह खाट पर गिर गई, और अब उसे दीख गया, कि वह शान्तिदायिनी गोद निसके लिये उसे देर से लालसा थी, प्रास होने में देर नहीं है। यह वात घर के लोग भी जान गये थे, पर कोई उसके लिये विशेष दुखी न था-कोई-कोई तो नित्य यह प्रार्थना करते थे कि भगवान् इसे उठा ही ले । निदान, नारायणी के कान में ज्यों-ही यह पड़ा, वह धीरज से उस दिन की बाट जोहने लगी, पर उसकी इच्छा पूर्ण न हुई। उसके सुसरालवालों ने जव देखा, कि अब इसका वचना कठिन है, तो उन्होंने हारकर जयनारायण को चिट्ठी लिखकर बुलाया, और हरनारायण अपनी बहन को लेने तुरन्त चल दिया। दस बनने में दो-चार मिनट की देर है। हरनारायण अपनी बहन को सुसराल से लेकर भान तीसरे पहर आये हैं, उनका मुँह बड़ा उदास है। तब से अब तक उन्हें भीतर जाने का प्रव- फाश नहीं मिला है। भोजन भी पिता-पुत्र ने नहीं खाया है। नारायणी के सुसरालवालों का अत्याचार और पशु-भाव देख- सुनकर ही उनका पेट भर गया है। जयनारायण कमी लम्बी ..
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