उपन्यास साँसें खींचने, फभी दो बूंद आंसू थहाते हैं ! बैठक में और दो- चार मनुष्य बैठे थे । दैव-विपाक पर विवशता और धीरत की दो- चार बात कहकर वे मी एक-एक करके खिसक गये हैं। पिता-पुत्र कुछ देर स्तन्ध बैठे रहे । तब जयनारायण ने कहा-"बायो बेटा, भय तुम भी थाराम फरो, रास्ते की थकावट है।" हरनारायण धीरे-धीरे उठकर अपने शयनागार में भापहुंचे। शयनागार में भी सबाया था-हरदेई पलंग पर दरवाजे की और पी लिये पड़ी थी। उसकी इस निद्रा में कितना भाग मान था और कितना मकर था, सो भगवान ही बाने। हरनारायण ने हरा-भर अपनी स्त्री की ओर देखकर कहा- "क्या सोगई ?" हरदेई चुप रही। हरनारायण ने अव की यार हाय पकदकर कहा-"जरा उठो तो।" हरदेई ने जरा कुनमुनान कहा-"क्या है?" "क्या जाने क्या है, तुम्हारी नींद भी फड़े में चलती है।" हरदेई व बैठी-कुछ सुस्ताकर और दो-एक जमाइयाँ लेफर उसने ताने के ढंग पर कहा-"तुम्हें पुरसत मिल गई अमानेन्मर की वात-चीत से?" "नीचे बैठक में दो-चार भावमी या येसो पाना नहीं हुमा; और भभी इस ही बने हैं--पर तुम्हारी नींद का भी कुछ ५
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