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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/६९

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उपन्यास - से रोटी उतरते देर नहीं होती कि फोट के क्टन लनाते-लगाते दश्वर दोगे। वहाँ मे मरे-सपे २ मील धूप में चलकर घर ४ यने थापे । न तन की सुध न यदन की! फिर हाँपते-हाँपते ट्यूशन पाने भागो, रात को यारह-यारह बजे तक दफ्तर के कागजों में भाग लगायो। फिर सून पिला-पिलाफर यहनों को पालो मैं घर में चार बजे से रात के यारह बजे सक कोल्हु के येल की तरह पिसा फल, और काय-काय फरती इधर से उधर फिरूँ?-और तुम्हारी सीधी- साधी यहन बितायों में सिर फोदा करें। न-माने किस दफ्तर में माल नौकरी फरेगी ? तिस पर तुरा यह है कि 'करनी-मा-पर- तूत और लाने को मौजूद'यह जिन्दगी है ? यह तो जान का नंजाल है। भगवान् उठा ले इस धरती से ।" इतना कहकर हरदेई सुफ मुफफर और बहाने लगी। हरनारायण से चारपाई पर लेटे न रहा गया। वे उठकर कमरे में टहलने लगे। हरदेई फिर केली-"श्रय दूसरी को लिये भा रहे हैं-मुर्दा हाल में। निपने सुसरालवाले भी देखो- भले के भले रहे । बीमार पड़ी, तो यहाँ मेन दोश्रय वैद्य-डॉक्टरों की हाजिरी धनाना। पसीना यहा-यहाकर फसाम्रो, और इस तरह उदाओ।" इतना कहर हरदेई पुनः चुप होगई। हरनारायण बहुत दुखी हो रहे थे। हम नहीं कह सकते, इस दुःख में क्रोध की मात्रा अधिक थी, या लाचाती की, पर मारकर उन्होंने स्वर से कहा- "देखता हूँ, तुम मुझे पागल बनाये बिना न छोड़ोगी।"