पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/६८

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६८ अमर अभिलाषा को चाहिये, जैसी पड़े, भुगते । तुम्ही यताओ, इन वेचारियों का भव धरती-आसमान पर है कौन ? अब तो इन्हें तुम्हारा ही आसरा है। दुक्खम-सुक्खम जैसे बने, रखना ही पड़ेगा।" उकताकर हरदेई बोली- "तो तुम्हें रोकता कौन है ? पर मैं साफ़ ही कहती हूँ, मुमसे तो न रहा जायगा। (आँसू पोंछकर ) जरा-सी लड़की मेरे सुहाग को कोसेगी ! काम-धन्धे को तिनके का सहारा नहीं, और खाने को चाहिये छः यार । ये हड्डियाँ हैं-इन्हें पीसे जायो । दो बूढे-बुड़िया, दो धी-यही बहुत हैं। रही लुगाई, सो उसे यफ्रीम- संखिया खिलादो-बाल-बच्चों का गला घोट दो!"-बस, इतना कहकर हरदेई ने गम्भीरता से एक लम्बी साँस छोड़ी। हरनारायण दुखी होकर बोले-~ "वो क्या करूँ ? इन्हें फाँसी लगा दूँ ?-या भीख माँगने को. चोद दूँ? दर-दर भीख माँगते ये अच्छे लगेंगे?" "ना-उन्हें तो रानी बनायो, भीख मांगते तो बच्चे अच्छे लगेंगे, निनकी सूरत भंगी-चमारों से भी बदतर हो रही है- धोती न करता । एक छल्ला मेरे पास नहीं रहा- व्याहन्टेहले में कुटुम्ब-परिवार की चार औरतों में जाते लान से मर जाती हैं। उनकी टहलनी भी मुझसे अछी लगती हैं। खैर! मुझे तो भाड़ में जाने दो,पर अपनी सुरत देखों-दस जगह से गा हुमा फिड़क जूना घसीटते फिर रहे हो! आँखें गढ़े में धस गई है, मुंह काला पड़ गया है । ४५) तनख्वाह मिलती है। सबेरे हलक