उपन्यास 3 . . "कहाँ ? कुछ भी तो नहीं!" "तो ऐसे क्यों होरहे हो?" "कुछ नहीं।" कहकर जयनारायण ने यात टालने की गरज से कहा-"रसोई तैयार है न, लामो परसो।" गृहिणी फिर चौके में गई। पानी परोसकर सामने रखदी, और पंखा लेकर स्वामी को हवा करने लगी। गृहिणी ने देखा- आन उसके स्वामी अत्यन्त खिश हैं। वह भोजन केवल शिष्टाचार के लिये कर रहे है। परन्तु उसने कुछ पूछना इसलिये उचित न समझा, फि भोजन के समय दुःख की बात नहाँ तक याद न हो, वहीं तक अच्छा है। नयनारायण का भोजन भी शीघ्र समास होगया। वह एकदम थाली छोड़, उठ खड़े हुए। अब गृहिणी से न रहा गया। उसने अत्यन्त फरुणा से स्वामी की ओर ताकते हुए कहा-"बल, खाचुके ?" "हाँ, जी अच्छा नहीं है; खाया नहीं जाता । तुम ज़रा चार- 'पाई विद्यादो, मैं तनिक सोऊँगा।" गृहिणी चुपचाप भीतर कोठरी में चली गई। चारपाई बिछा- कर ऊपर से दरी विधा दी। नयनारायण ने बैठकर कहा-"तुम खा-पीकर नियटो, मैं तब तक सोलूं।" गृहिणी एफटक स्वामी की ओर देख रही थी। उसने कहा- "इस तरह कव तक काम चलेगा-कोई एक दिन की तो वात है ही नहीं ! मर्द होकर ऐसा करते हो? मुझे वो देखो, एक बूंद भासू नहीं गिराया।"
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