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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/८२

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अमर अभिलापा माँगता हूँ, पर याद रहे, कि क्रोध या पिवश मैंने यह नहीं कहा है। आत्मा का दुःख जब नहीं सहा गया, तो कहा है। अन्ततः आप मेरे श्रान्मीय तो हैं; और नव श्राप पर ऐसी धापत्ति टूटी है, वो मानो मुझी पर दृढी है।" जयनारायण के आँसू वह चले । वह अवरुद्ध फरठ से थोले, -"आप इसे भी फटी पड़ी सुनाइये, जब पाप मैंने फ्ल्यिा है, तो बुग क्यों मानूंगा? कृपया जल्दी-जल्दी दर्शन किया करें।" रामचन्द्र 'नमस्ते' कहकर चल दिये। एकान्त पाकर वयना- रायण फर्श पर गिरफर बालकों की तरह रोने लगे। दसवाँ परिच्छेद जयनारायण की स्त्री बड़ी देर से रसोई के लिये वैवी यो। वह अत्यन्त उदास और दुखी चित्त से वहां पहुंचे। देर के कारण गृहिणी हुँ मलाई बैठी थी। इससे टसने कुछ कठोर बात कहने को स्वामी की ओर सिर उठाया ही था, फि मुख पर घष्टि पडते ही समझ गई, कि थान कुछ हुआ है। श्रादमी चाहे लाख छिपाये, पर स्त्री और माता से कुछ छिपा नहीं रहता। नयना- रायण की स्त्री वड़यहाफर उठ खड़ी हुई। उसने चौके से बाहर पाकर कहा- "क्यों, क्या हुश्रा ?"