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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/८५

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उपन्यास रहे हो, तो वस, अन्धे की लकड़ी भी गई ।" इतना कहकर गृहिणी फिर रोने लगी। जयनारायण ने दुखी होकर, टूटती श्रावाज़ से कहा- "आखिर मैं क्या सदा के लिये पटा लिखा लाया हूँ १ अन्त में मुझे पाप का फल भोगने को नर्क का कीदा बनना ही पड़ेगा। अब मरने-तीने में क्या है ? श्रान मरा तो, कल मरा तो।" "तुमने कौन-सा पाप किया है ?" नयनारायण स्त्री की ओर आँखें फाइकर देखने लगा। उसने कहा-"क्या ? क्या मैंने कोई पाप ही नहीं किया है ? दो-दो निरपराध बालिकाओं का सुहाग फोद चुका हूँ। इनसे सारे संसार के सुख छीन लिये हैं। और तुम कहती हो; कौन-सा पाप किया है ?" "सुहाग क्या तुमने फोड़ा है ? यह सब तो भगवान् की मजी है।" स्त्री की बात काटकर नयनारायण बोले- -"जुप रहो! भगवान को यहाँ दोष मत दो ! भगवान क्या रोक्षस हैं, या हमारे शत्रु हैं ? वह तो संसार के स्वामी हैं, पिता है। चींटी से हाथी तक को वही सब-कुछ देते हैं। वह करुणा के धाम क्या निरपराध-निरीह बालिकाओं पर ऐसा वन-पात करेंगे? ऐसा साहस तो नर्क के कीड़े से भी अधम मुम जैसे पापी से ही हो सकता है।" इतना कहकर उत्तेजना के मारे जयनारायण हाँपते- हाँपते कमरे में टहलने लगे।