पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/९२

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.९२ अमर अभिलाषा नारायणी चुप रही-पर उसकी आँखों ने उत्तर देना प्रारम्भ कर दिया। श्रव उनमें पानी छलछला आया था, वह वेग से वह चला। उसकी हिलकियाँ बंध गई। जितना ही वह अपनी व्यथा छिपाना चाहती थी, उतनी ही आँखें उमड़ी पड़ती थी। रोते-रोते नारायणी अधमरी होगई। अन्त में, दम लेकर वह दुधमुही बालिका थपनी ससुराल की दिना यों सुनाने लगी- "लव तुम वहाँ से चले पाये, तो सब ने वासना शुरू कर दिया । जेठ-निठानी भी, जो अलग होगये थे, फिर धाकर शामिल रहने लगे । वे सव वात-घात में मुझे गाली देने, मारने और दुःख देने लगे। चाचानी (श्वसुर) ने तो मेरे हाथ का अन्न- जल त्याग दिया । जब मैं पीने को पानी भी लेकर नाती, वो सैकड़ों गाली सुनाते, 'डायन', 'अभागिनी' बताते, और लात मार- कर गिलास फेंक देवे । अन्त में मैंने उनके सामने नाना ही छोड़ दिया। रसोई में घुसने कोई न देता था। सब के खा-पी चुकने पर दो-तीन बजे ल्खी-सूखी, नो मिलती-खाती। वहीं सघ खा- पीकर चौका छोड़ नाते थे। तब मैं भीतर जाकर वो कुछ वचा- खुचा रहता, साकर पानी पी लेती थी। कोई पूछता भी नहीं, कि तू भूखी है, था प्यासी। जिननी और जेटली सदा तुम्हें गाली दिया करते-कि व्याह में खाक दिया! यह साँपन अच्छी च्याहकर लाये!-आदि। चाहे जी अच्छा हो, यान हो, रात को -चारह बजे तक चौका-वासन मुम ही को करना पड़ता था। सदी में