पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/९४

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.९४ अमर अभिलाषा टन्होंने अपरत फरठ से फहा-"ना-ना, चेटी! उन चारवालों से हमारा प्त्या फाम?" " फहते थे कि यहाँ जाकर जो हमारी चुगली खाई तो चापस थाने पर जीता न छोड़ेंगे । वाया ! उनसे तुम कुछ कहना 'नहीं, नहीं तो मैं जीती न यदूंगी।" जयनारायण चिलखकर रो उठे, बड़ी कठिनता से योले- "मेरी वर्षा ! जब तक मैं जीता हूँ, तुझे उनसे डरने की जरूरत नहीं है। उन पापियों को द्वार पर भी न फटकने दूँगा । नीष, बेईमान, पाजी कहां-के-मेरी लडकी क्या जानवर समझी है ! अपने पालतू पशु पर भी कोई ऐसा जुल्म नहीं करता। पर फिससे कहूँ, यह सब मेरा ही तो पाप है । संसार के स्वामी का न्याय भी कैसा उल्टा है, पाप का पाप वेटी भोगती है!" जयनारायण अत्यन्त दुःखी होकर कमरे से बाहर निकल गये । यालिफा की पास झपफ गई थी, यात करनी पढ़ी, इसी से थक गई । वारहवाँ परिच्छेद भगवती उदास येठी, अपनी फ्टी धोती सो रही थी। चम्पा ने उसके काम में बाधा देफर कहा- "निगोड़ी! तुझे नए देखें, तभी किसी न किसी परपज में फैसी रहती है, पर थान मैं तुझे न छोरं गी, तुझे मेरे माय चलना ही पड़ेगा।"