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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/९५

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उपन्यास ९५ भगवती ने हंसते-हंसते कहा:- "क्यारी! तू जब आती है,गाली देती थाती है । तेरी जयान यदी लम्यी हो गई है।" चम्पा ने मुंह पिचकाफर कहा-"यो हो! पुरखिन को गालियां सुहादेगी योदे ही ! अव यावे ही पदीजी के पांच पदना पढ़ेगा क्यों न ?" भगवती ने उसे धफा देकर कहा-"चल, परे हो! तुमसे पार फौन पावेगा। तू खूब गाली दिया कर-यल्कि दरवाजे में घुसते ही वखान-पखानफर ! मर्दानगी तो तेरी तभी है।" चन्पा ने नकली मान से तनकर कहा-"घरहा, तो तु मेरी मर्दानगी परम्बने चली है ?" भगवतीने हँसकर कहा-"भई मैं हारी। था, थेट तो सही। यह मान लो नख-शिख से सिंगार किये थाती है तो किस पर चढ़ाई है " "चदाई में तुझे क्या छोई गी । तुझे भी थान नख-शिख से सिंगार करना पड़ेगा।" भगवठी ने फिर सरलता से हसकर कहा- "मेरा सर फिसको दिखावेगी मई ?" "वहाँ देखनेवाले चनेफ होंगे जिसे जी चाहे दिखाइयो।" भावती ने मुँह फुलाफर कहा-"पल चुप रह, न चली कहाँ "तु भी साय चलकर न देखले।"