उपन्यास ९७ इवनी कारगर हुई है, उसे धाराम होने के बाद भी घोड़ा और पिलाना चाहिये। भगवती ने कपड़े पहनकर तैयार होकर कहा-"चल, चलें।" चम्पा ने माथे पर यल डालकर कहा-"चल, मैं तेरे साय नहीं जाती।" भगवती ने कहा-"क्यों-श्रय क्या हुभा ?" "हुथा तेरा सिर ! गोनिहाई को देखने इस तरह नाया करते हैं जैसे किसी की टहलनी हो! पास-पड़ोस की सौ लुगाई हॉगी-देखेंगी, तो क्या कहेंगी?" "तो फिर क्या करूं?" "धरड जोदा निकालकर पहन । गौने के बाद एक बार ही तो पहना था-धर किसलिये रक्खा है, क्या चिता पर पहनेगी?" भगवती का मुख उदास होगया । पर चम्पा का उधर लक्ष्य नहीं था, वह चीखकर उसे भीतर लेगई । उसकी पिटारी खोलकर उसमें से गुलाबी जोहा, जो भगवती के गौने का था, निकालकर उसे पहना दिया, उसका मुँह धोकर बिन्दी और भाँखों में कानन लगा दिया । भावती ने बहुवेरा मना किया, पर उसने एक न सुनी। गोटे की भंगिया पर मोदना उदाकर उसकी चुटकी लेकर कहा-"बता, तेरे गहने कहाँ है?" "ना! ना! गहने मैं नहीं पहनूंगी।" "अच्छा-अच्छा-पर बता तो सही।" "वे माँ के पास हैं।"
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