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नव्वाब बजीरों के शासन में अयोध्या


आसिफु़द्दौला के सेनापति राजा झाऊलाल सकसेने कायस्थ थे जिनके नाम का महल्ला लखनऊ में अबतक झाऊलाल का बाजार कहलाता है। उसी महल्ले में ग्रन्थकर्ता का मकान है। झाऊलाल के बाग का नाम फै़ज़ाबाद के वर्णन में ऊपर आ चुका।

बहू बेगम फै़ज़ाबाद में ई॰ १८१६ में मरी और जिस मक़बरे में वह गड़ी है वह अवध में अद्वितीय है। उसके चारों ओर सुन्दर बाग है और उसके खर्च के लिये माफ़ी लगी हुई है।

शाही दरबार लखनऊ में उठ जाने पर अयोध्या में कोई विशेष घटना नहीं हुयी। वादशाहों की छत्रछाया में महाराजा दर्शन सिंह और उनके दरबारी कायस्थों ने अनेक मन्दिर बनवाये जो अब तक विद्यमान हैं।

अन्तिम बादशाह वाजिदअली के समय में एक दुर्घटना हुई जिसका वर्णन बहू बेगम के विश्वास-पात्र दराबअली खाँ के कुल के एक सज्जन ने भेजा है।

"गुलाम हुसेन नाम का एक सुन्नी फ़क़ीर हनूमानगढ़ी के महन्तों के यहाँ से पलता था। वह एक दिन बिगड़ बैठा और सुन्नियों को यह कह कर भड़काया कि औरङ्गजेब ने गढ़ी में एक मसजिद बनवा दी थी उसे बैरागियों ने गिरा दिया। इस पर मुसलमानों ने जिहाद की घोषणा कर दी और गढ़ी पर धावा बोल दिया। परन्तु हिन्दुओं ने उन्हें मार भगाया और वे जन्मस्थान की मसजिद में छिप गये। कप्तान आर, मिस्टर हरसे और कोतवाल मिरजा मुनीम बेग ने झगड़ा निपटाने का बड़ा उद्योग किया। बादशाही सेना खड़ी थी परन्तु उसको आज्ञा थी कि बीच में न पड़े। हिन्दुओं ने फाटक रेल दिया और युद्ध में ११ हिन्दू और ७५ मुसलमान मारे गये। दूसरे दिन नासिरहुसेन नायब कोतवाल ने मुसलमानों को एक बड़ी क़बर में गाड़ दिया जिसे गंजशहीदाँ कहते हैं।

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