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अयोध्या का इतिहास

हुआ है। कहते हैं यह थम्भा प्राचीन नगर के द्वारस्थान पर है और ५०० वर्ष पूर्व यहाँ का दृश्य बहुत ही सुन्दर था। पास ही माता का मन्दिर है। यह एक पर्वत पर है। पहिले इस पर्वत से बहुत सुन्दर सुन्दर झरने निकलते थे। वहाँ का दृश्य बहुत ही रमणीक था, अब भी वह पहाड़ी कम सुन्दर नहीं। इस स्थान के पहाड़ में कई प्राचीन इमारतों के भग्नावशेष विद्यमान हैं जिनको देखने से प्रतीत होता है कि यहां पहिले विशाल भवन बने थे।[१]

दिग्विजय

रुद्रमहाराज ने भक्ति से प्रसन्न होकर राजा ययाति को अत्यन्त दिव्य प्रकाशमान सुवर्ण का रथ[२] और दो अक्षय तूणीर (तर्कस) दिये थे। इन तर्कसों में के वाण कभी समाप्त नहीं होते थे। ययाति ने उसी रथ पर चढ़कर सम्पूर्ण पृथ्वी का विजय किया। ययाति का प्रताप भी अपने पिता नहुष से कम नहीं था। देव दानव और मानव भी उसके मुकाबले पर न ठहर सके।

राजा ययाति के भोगविलास से न तृप्त होकर अपने पुत्रों से जवानी मांगने की कथा प्रसिद्ध है। संभव है कि सब से छोटा पुत्र


  1. मैं स्वंय इस स्थान पर १ मास रहा हूँ और सब स्थान अपनी आँखों देखे हैं। —लेखक।
  2. ययाति का रथ उसके बाद पुरुवंश के राजाओं के पास रहा और कुरुवंश की सम्पत्ति बना। यह बराबर जनमेजय तक चला आया। एक बार जनमेजय उस रथ पर चढ़कर मदमत्त होकर जा रहा था कि मार्ग में गार्ग्य नामक एक ब्राह्मण का बालक रथ के नीचे आकर कुचल गया। उसी ब्राह्मण के शाप से जनमेजय के हाथ से वह रथ निकल गया। फिर इन्द्र को प्रसन्न कर के वृहदय ने यह रथ पाया। भीम ने उसे मार कर श्री कृष्ण को वही रथ दिया। इस प्रकार वह रथ सदा धनवती राजाओं के पास रहा।