ह्वानच्वांग कहता है कि पिसोकिया की परिधि लगभग १६[१] ली थी। इतना स्थान, एक शक्तिशाली राज्य की राजधानी के लिये कदापि काफी नहीं था। मेरा विश्वास है कि यह परिधि रामकोट की है जिसका आगे वर्णन किया जायगा। डाक्टर फूरर का वचन है कि गोंडे के आदमी इस दतून के वृक्ष को चिलबिल का पेड़ बताते हैं जो छः या सात फुट से आगे नहीं बढ़ता। यह करौंदा भी हो सकता है जिसकी दतूनें आजकल भी अवध में और विशेष कर लखनऊ में काम आती हैं।
यहाँ यह भी बताना अयोग्य न होगा कि दतून के बढ़ने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कानपुर ज़िले में घाटमपुर की तहसील से एक मील की दूरी पर एक महंत का कई मंजिल का मकान है जिसमें एक नीम का पेड़ एक दतून से निकला हुआ है जिसे एक साधु ने २०० वर्ष पूर्व लगाया था। इन बातों से कदापि यह मेरा मतलब नहीं है कि मेरे कथन से किसी को दुःख हो। समाधान यों भी हो सकता है कि बुद्धदेव भी विष्णु के अवतार थे।
कनिघंम कहते हैं कि अयोध्या की प्राचीन नगरी जैसा कि रामायणी में लिखा है सरयू नदी के किनारे थी। कहा गया है कि उसका घेर १२ योजन या लगभग १०० मील था। किन्तु हमें इसके बदले १२ कोस या २४ मील ही पढ़ना चाहिये। संभव है कि उस प्राचीन नगर को उपवनों के सहित माना हो। पश्चिम में गुप्तारघाट से[१] लेकर पूर्व में रामघाट तक की दूरी सीधी छः मील है और हम भी यही समझते हैं कि उसका घेर १२ कोस ही का रहा हो। आजकल भी यहाँ के निवासी कहते हैं कि नगर की पश्चिमी सीमा गुप्तारघाट तक और पूर्वी विल्वहरि तक थी। दक्षिणी सीमा भदरसा के पास भरतकुण्ड तक बतायी जाती है। वह भी छः कोस है।