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और प्राचीन ग्रन्थों में

में कहते हैं कि अयोध्या की रमणीयता से सारा सुरलोक निरस्त हो गया था। . . . यह भारतवर्ष के मध्यभाग का अलंकार स्वरूप थी। इसके चारों ओर ऊँचा कोट था इसके आगे जलभरी गहरी खाईं थी जिसे मनोरथों से भी कोई लाँघ नहीं सकता था और जिसमें ऊँचे कोट की परछाई पड़ने से ऐसा जान पड़ता था मानों मैनाक की खोज में हिमालय समुद्र में घुसा हुआ है। इत्यादि।'

हेमचन्द्र जी अन्हलवाड़े के कुमारपाल सोलङ्की के गुरु थे। वे कहते हैं कि इंद्रदेव की आज्ञा से कुवेर ने १२ योजन चौड़ी और ९ योजन लंबी विनीता पुरी बनायी जिसका दूसरा नाम अयोध्या भी था और उसे अक्षय्य धनधान्य और वस्त्र से भर दिया। . . . उसके घरों के आँगनों में मोती चुनकर स्वस्तिका बनती थी—वहाँ जलकेलि में स्त्रियों के हार टूटने से घर की वावलियाँ ताम्रपर्णी[१] सी लगती थीं जहाँ चन्द्रमणि की भित्तियों से रात को इतना जल गिरता था कि सड़कों की धूर बैठ जाती थी . . . विनीता नाम की पुरी जम्बूद्वीप के भरतखंड में पृथिवी की शिरोमणि थी।

परन्तु जैन-धर्म का सब से प्रामाणिक ग्रन्थ आदिपुराण है। इस ग्रंथ को विक्रम संवत की आठवीं शताब्दी में जिन सेनाचार्य ने संस्कृत में रचा था। इसमें अयोध्या का वर्णन बारहवें अध्याय में दिया हुआ है।[२]

तौ दम्पती तदा तत्र भोगैकरसतां गतौ।
भोगभूमिश्रियं साक्षाच्चक्रतुर्वियुतावपि॥६८॥

ऋषभदेव जी (आदिनाथ) के माता पिता मरुदेवी और राजा नाभि इसमें भोगभूमि से वियुक्त होने पर बड़े आनन्द से रहे।

तस्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पाङ्घ्निपात्थये।
तत्पुण्यैमुहुराहूतः पुरहूतः पुरीं दधात्॥६९॥

  1. लंका जहाँ अब तक मोती निकलते हैं।
  2. यह लेख पंण्डित अजित प्रसाद जी एम्॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰, अडवोकेट के भेजे हुये लेख के आधार पर है।