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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१००

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अलंकारचंद्रिका से पसीना, मन से गर्व और हाथों से हथियार । यहाँ भी यथा- क्रम वर्णन है। इसी प्रकार और भी समझ लेना। यथा- वंदौ राम नाम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥ 'राम' शब्द के तीन अक्षर र, अ, म, क्रम से अग्नि, सूर्य और चंद्रमा के हेतु कहे गये। पुनः-शत्रुन को मित्रन को परम पवित्रन को घालियत, पालियत पूजियत पाये ते। दो-अमी हलाहल मद भरे सेत स्याम रतनार। जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इकबार । भौं चितवनि डोरे वरुनि असि कटार फंद तीर । कटत फटत वंधत बिंधत जिय हिय मन तन वीर ॥ पुनः- जनि जल्पना करि सुजस नासहि नीति सुनहि करहि छमा । संसार महै पूरुष त्रिविध पाटल, रसाल, पनस समा। इक नुमनप्रद, इक सुमनफल, इक फलहि केवल लागहों। इक कहहिं, कहहिं करहिं अपर, इक करहिं, कहत न बागहीं। सूचना-इस अलंकार को फारसी, उर्दू तथा अरबी साहित्य में 'लफोनशर मुरत्तब' कहते हैं। इस अलंकार का एक उत्तम उदाहरण 'फिरदौसी' ने अपने 'शाहनामा' में लिखा है । फारसीदाँ पाठकों के लिये उसे हम यहाँ लिख देते हैं और हिंदीवालों के समझने के लिये उसका भावानुवाद भी किये देते हैं । रुस्तम की तारीफ में फिरदौसी लिखता है- बरोजे नबर्द ऑयले अर्जुमंद । बशमशीरो, खंजर, बगुजों कमंद । बुरीदो दरीदो शिकस्तो, बिबस्तयलार सिरो, सीनओ, पायो दस्त । ( भावानुवाद) संगर में जब रुस्तम ने अपने विजयी हथियार उठाये। खंग कटार गदा अरु पाश के अद्भुत यौं करतब्य दिखाये ।