पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१०२

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अलंकारचंद्रिका (यथा ) दो०-सचिव वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस । राज्य धर्म तनु तीन कर होइ वेग ही नास ॥ यहाँ सचिव, वैद्य और गुरु के क्रम से राज्य, तनु और धर्म कहना चाहिये था, सो क्रमभंग है। इसका फारसी तथा उर्दू में “फलोनशर गैर मुरत्तब" कहते हैं। ३-[विपरीतक्रम] जिसमें पूर्वोक्त वस्तुओं के वर्णन का क्रम उलट दिया गया हो। जैसे- राज्य नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहिं समर्प विनु सतकर्मा । बिद्या बिनु विवेक उपजाये। श्रमफल पढ़े किये अरु पाये यहाँ चार वस्तुएँ कही गई-राज्य, धन, सत्कर्म और विद्या। फिर कहा गया है कि इन चारों के साथ अगर ये चार गुण न हो तो विद्या का पढ़ना, सत्कर्म का करना और धन तथा राज्य का पाना केवल श्रम मात्र है। यहाँ स्पष्ट देख पड़ता है कि जो क्रम वर्ण्य वस्तुओं का है, ठीक उसके विपरीत उनके वर्णन का है। 11 २९-परिवृत्ति दो०-जहाँ अधिक अरु न्यून को लीवो दीबो होय । विवरण-परिवृत्ति का अर्थ है 'अदलाबदला' वा लेना- देना। इसके तीन भेद हो सकते हैं-(१) बहुत देकर थोड़ा लेना । (२) थोड़ा देकर बहुत लेना। (३) सम देकर सम लेना। जिनमें से तीसरे में हमारे मत से कोई अलंकारता नहीं आती, इससे हम केवल प्रथम दो के ही उदाहरण लिखेंगे।