पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१०७

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सम्भावना १०३ ३२-संभावना दो० -'होय जु यों तो होय यों' जहँ कहुँ बरनन होय । अलंकार संभावना ताहि कहैं सब कोय ॥ यथा- १-दो०-उगै जो कातिक अंत की छनदा छोड़ि कलंक । तो कहुँ तेरे बदन की समता लहै मयंक ॥ २. जो छवि सुधा-पयोनिधि होई। परमरूपमय कच्छप सोई । सोभा रजु मंदर सिंगारू । मथै पानिपंकज निज मारू । यहि बिधि उपजै लक्षि जब सुन्दरता सुखमूल । तदपि सकोच समेत कबि कहैं सीय समतूल ॥ जो तुम अवत्यो मुनि की नाई। पदज सिर सिसु धरत गुसाई ॥ ४-मीत न नीति गलीत यह जौ धन धरिये जोरि । खाये खरचे जौ बचै तो जोरिये करोरि ॥ सूचना-'प्रमाण' अलंकार के अंतर्गत एक भेद 'संभव' भी है। उसमें और इस संभावना अलंकार में यह भेद है कि इसमें तो निश्चय कहा जाता है कि यदि ऐसा होता तो ऐसा होला' और उस 'संभव' में केवल यह कहा जाता है कि ऐसा होना संभावित है। हो या न हो, यह निश्चित नहीं। ३३-ललित दो०-ललित अलंकृति जानिये कह्यौ चाहिये जौन । ताही प्रतिविंब ही बरनन कीजै तौन ॥ विवरण-जो वृत्तांत कहना है उसे न कहकर उसका प्रतिबिमात्र कहा जाता है। यथा- १-लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधिगति बाम सदा सब काहू।