अर्थान्तरन्यास १०५ साधारण सिद्धांत से उसका समर्थन किया जाय। इन दोनों प्रकार के कथनों में अर्थातरन्यास अलंकार माना जाता है। (साधारण की दृढ़ता विशेष) दो -कारन ते कारज कठिन होय दोष नहिं मोर । कुलिस अस्थि ते उपल ते लोह कराल कठोर ॥ इसमें दोहे के पूर्वार्द्ध में एक सामान्य बात कहकर उत्तरार्द्ध में विशेष प्रमाण द्वारा वही बात पुष्ट की गई है । पुनः- १-दो०-बड़े न हजै गुनन बिनु बिरद् बड़ाई पाय । कनक धतूरे सों कहत गहनो गढ़ो न जाय ॥ २-दो०-अति लघुहू सतसंग ते लहत उच्च पद्वीसु । कीट सु लाह सँगसुमन को चढ़त ईस के सीम् ॥ ३-दो०-जे छोड़त कुल आपनो ते पावत बहु खेद । लखहु बंस तजि बाँसुरी लहै लोह को छेद ॥ ४-दो०-लागत निज मन दोषते सुन्दर हूँ बिपरीत । पित्तरोग बस लखहि नर सेत संख हूँ पीत ॥ ५-दो०-बरजत हूँ जाचक जुएँ दानवन्त की ठौर । करी करन भारत रहैं तऊ भ्रमैं तहँ भौंर ॥ ६-राम भजन बिनु मिटहि न कामा। थल बिहीन तरु कबहूँ कि जामा ॥ ७-छोटे, बड़े पद को पहुँचै जब पावत हैं सतसङ्ग बिलास को। पानके साथ जात लखो छितनाथके हाथलौं पात पलास को॥ (विशेष का समर्थन सामान्य से) १-अस कहि चला बिभीषन जबहीं। आयुहीन भे निसिचर तबहीं। साधु अवज्ञा तुरत भवानी । कर कल्याण अखिल कर हानी ॥ यहाँ पहले विशेष बात कही कि ज्योंही विभीषण लङ्का
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