पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११४ अलंकारचंद्रिका ४१-हेतु (पहला) दो०-'कारज कारन संगही जहँ बरनै इकठौर । प्रथम हेतु तासों कहत जिनकी मति सिरमौर ॥ १-भाग जगे 'लछिराम' दुहून में छाये तरंग सुप्रीति भली के। राममुरूप निहारत ही उर मोद बढ़े मिथिलेस लली के ॥ २-उयो अरुन अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक मुखदाता । ३- जासु बिलोकि अलौकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मन छोभा ॥ 3-अरुनोदय सकुचे कुमुद उड़गन जोति मलीन । -उयो भानु बिनुश्रम तमनासा । दुरे नखत जग तेज प्रकासा । -आपुहिं मुनि खद्योतसम रामहि भानु समान । परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिया।।। ( दूसरा) दो० कारन कारज ये जबै लसत एकता पाय । हेतु अलंकृति दूसरी ताहि कहैं, कविराय ।। विवरण-जहाँ कारण हो को कार्य रूप में वर्णित करते हैं वहाँ दूसग हेतु' होता है। जैसे- १-मरी रिद्धि समृद्धि है तुव दाया रघुनाथ । २-परम पदारथ चारहू श्री राधा गोबिन्द । ३-कोऊ कोरिक संग्रही कोऊ लाख हजार । मोसंपति यदुपति सदा बिपति बिदारन हार ॥ ४-मोहिं परम पद मुक्ति सब, पदग्ज घनस्याम । तीन लोक को जीतिबो, मोहिं बसिबो ब्रजग्राम ॥