पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/२१

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वक्रोक्ति पुनः- दो-को तुम ? हरि प्यारी ! कहा, बानर को पुर काम । स्थाम, सलोनी! स्याम कपि! क्यों नडरें तब बाम ॥ सूचना-इन उपर्युक्त उदाहरणो में यदि श्लिष्ट शब्दों को पर्याय शब्दों से बदल दें तो काव्य बिल्कुल नष्टभ्रष्ट हो जायगा अर्थात् इन छंदों का कवित्व उन्हीं शब्दो पर निर्भर है, इसलिये इनमें शब्दालंकार है। ( काकु वक्रोक्ति) दो०-जहाँ कंट भिन्न तैं, प्रासय जुदो लखाय । सो वक्रोक्ती काकु है, कविवर कहैं बुझाय ॥ विवरण-जहाँ शब्द के उच्चारण में कंठध्वनि से कुछ और ही अर्थ मासे वहाँ काकु समझो। सूचना-इसके उदाहरण रौद्ररसपूर्ण वा हास्यरसपूर्ण वादविवाद में अधिकता से हुआ करते हैं। रामायण में अंगद और रावण के संवाद में बहुत-से हैं । यथा- अंगद्-कह कपि धर्मसीलता तोरी । हमहुँ सुनी कृत परतियचोरी। धर्मसीलता तव जग जागी । पावा दरस हमहुँ बड़ भागी। अंगद-सत्य कह्यो दसकंठ सब, मोहिं न सुने कछु कोह । कोउ न हमरे कटक अस, तोसन लरत जो सोह ॥ पुनः कह कपि तव गुनगाहकताई। सत्य पवनसुत मोहिं सुनाई। कह अंगद सलज जगमाहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं। सो भुजबल राख्यो उर घाली । जीतेउ सहसबाहु वलि वाली। सीता-मैं मुकुमारिनाथ वन जोगू । तुमहिं उचित तप मोकहँ भोगू। पुनः दोहा काह न पायक जारि सकै, का न समुद्र समाय । का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाय ॥ २