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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/३१

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अनुप्रास २७ ३-लखु लखु लखि लारसनयन इंदुबदन घनस्याम । बिज्जुहास दाडिमदसन, बिबाधर अभिराम ॥ ४-केहरिकंधर चारु जनेऊ । ५-लहि प्रसाद माला जु भौ, तनु कदंब की माल । सूचना-इसके कथन में बड़ी सावधानी चाहिये । तनिक ही भेद से यह अलंकार रूपक अलंकार हो जाता है। ६-(धर्मोपमानलुप्ता) जिसमें धर्म और उपमान का लोप किया जाय । जैसे- १-रे अलि मालति सम कुसुम, ढूँढ़ेहु मिलिहै नाहि । यहाँ मालती कुग्नुम उपमेय, सम वाचक मौजूद है। मुंदर, मनोहर आदि धर्म का और 'मिलिहै नाहीं' कहकर उपमान का लोप किया गया है। २-अाजु पुरंदर सम कोउ नाहीं। ३-देखो दाडिम ने दसन । यहाँ 'दसन' उपमेय और 'मे' वाचक मौजूद है। स्वेत, चमकील इत्यादि धर्म का और दाडिमबीज' उपमान का लोप है, क्योंकि केवल 'दाडिम' दाँतों का उपमान नहीं कहा जा सकता। दाडिम शब्द केवल उसका लक्षक है । ४-देख्यो खोजिभुवनदसचारी। कह अस पुरुष कहाँ अस नारी॥ ७---(धर्मोपमेयलुप्ता) धर्म और उपमेय का लोप किया जाय। जैसे- २-त्यौर तिरीछ किय मुनि संगहि हरत लंभु सरासन मार ले। त्यो लछिगम दुह कर बान कमानसी भौहें नु ब्रह्मवतार से। सामुहे श्रीमिथिलापति के डटिठाढ़े सही ग्ल बीर सिंगार ग्ने । नीलम चंपक माल से कौन ? स्वयंवर में मृगराजकुमार स