पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/३७

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उपमेयोपमा ३३ ५-स्वामि गुसाइहिं सरिस गुसाई। मोहिं समान में स्वामि दुहाई ६-श्रीरधुनाथ प्रताप लौ भूपर श्रीरघुनाथ प्रताप की लाली । ७-मैथिली सी तिहुँ लोकन में मिली मैथिली की सुभ सुंद्रताई। म-राम से राम, सिया सी सिया, सिरमौर विरंचि बिचारि सँवारे। ५-उपमेयोपमा दो०-उपमा लागै परस्पर सो उपमा उपमेय । विवरण-जहाँ उपमेय के लिये केवल एक ही उपमान हो, तीसरी सदृश वस्तु का अभाव हो; वहाँ 'उपमेयोपमा' अलंकार कहा जायगा । जैसे- १-वे तुम सम तुम उन सम स्वामी । २-तो मुख सो ससि सोहत है बलि सोहत है ससि सो मुख तेरो। ३-भूपर भाऊ महापति को मन सो कर औ कर सो मन ऊँचो। ४-लक्खन राम कलाधर से औ कलाधर लक्खनराम सो सोहै ॥ ५-दो०-सुधा संत के बैन सम, बैन सुधा सम जान । बैन खलन के बिषहि से, विष खल-बैन समान ॥ सवैया-अंबरगंग सो हैं सरजू, सरजू सम गंग छटा नभ साजै । यो 'लछिराम' सुदेवसे सेवक सेवक से सुभदेव समाजै ॥ सोहैं सुरेस से राम नरेस, सुरेसहु राम नरेस सो राजै । औधपुरीअमरावती सी, अमरावती औधपुरी सी बिराजै॥ सूचना-ये ऊपर लिखे हुए चारों अलंकार उपमा ही के भिन्न-भिन्न भेद हैं। प्राचीन कवियों ने उपमा के और भी अनेक भेद माने हैं, पर उनमें कोई विशेप विलक्षणता नहीं है। 'उपमा' अलंकार ही कविता का प्राण और कवियों का पुष्ट श्राधार है। आगे के अनेक अलंकारों में भी 'उपमा' ही प्राणवत् ३